इक नई दुनिया बसाने आ गए परदेश में
अपना घर परिवार सब कुछ था हमारे देश में
बस चंद सिक्के थे नहीं मां की दवाई के लिए
अब वही दौलत कमाने आ गये परदेश में ।।
साथ में रहकर खड़े सुख दुख सभी का बांटना
खेतों की मेड़े काटना और दूसरों को डांटना
लड़ते झगड़ते थे भले फिर साथ में थे बैठते
अब नहीं ऐसे पड़ोसी आ गये परदेश में ।।
भउजी बगल की थी बुलाती आइये चाय पीजिए
कुछ खाइये मेरे यहां एहसान इतना कीजिए
जी जबरदस्ती बुलाती राह चलते वो मुझे
बिना मतलब बात ना अब आ गए परदेश में।।
स्वाद था मिलता गजब पालक व सरसों साग में
घूमते थे खेत में और पूरा दिन तो बाग में
एक कमरे में सिमटकर रह गई है ज़िन्दगी
धूप भी अब नहीं दिखती आ गये परदेश में ।।
जब कभी बाजार जाते कुछ न कुछ सब थे खिलाते
कोई लग जाता गले तो हाथ भी कुछ थे मिलाते
ढूंढता हूं आज भी उनको यहां बाजार में
पर नहीं मिलते हैं क्योंकि आ गये परदेश में ।।
था भरा परिवार सारा एक दूजे का सहारा
काम सब मिल जुल के करते हो तुम्हारा या हमारा
कोई कपड़ा धुल दिया कोई बाल काला कर दिया
अब यहां सब खुद करें हम आ गये परदेश में ।।
दर्द थोड़ा सा जो होता दौड़ती थी भाभियां
खुश मुझे रखने को मेरी मां ने क्या क्या ना किया
रोज ही आशीष मिलता था चरण छूए बिना
अब नमस्ते का न उत्तर आ गये परदेश में ।।
याद आता है मुझे ममतामयी मां का दुलार
और बरसाती थी भाभी मुझे अपना सारा प्यार
ना मिले ममता दया करुणा मिले ना प्रेम अब
हो गया ”एहसास” हमको आ गये परदेश में ।।
-अजय एहसास
सुलेमपुर परसावां
अम्बेडकर नगर (उ०प्र०)