शीर्षक : तालिबान

प्रभुनाथ शुक्ल
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बारूद की गंधे अभी
फिज़ाओं में घूली हैं
और भीड़ शोर में गुम है
संवाद पर संगिनों का पहरा है
विरान शहर की खंडहर इमारतें
कुछ कहती हैं…
दिवालों पर पड़े
खून के धब्बे
चिथड़ों में विखरी इंसानी लाशें
बताती हैं कि यह तालिबान है ?
खिलौनों की तरह
कई टुकड़ों में फैले मासूमों के जिस्म
माँ के सीने से लिपटा दुधमुंहा
टूटे हुए खिलौने और
बारूद में उड़े स्कूल बैग
बेटी के पालने के पास
बिलखती रबर की गुड़िया
ऊँगली उठा
कहती है यह तालिबान है ?
सिर्फ युद्ध… युद्ध… युद्ध
झंडे बदलने से ही क्या
इतिहास बदल जाते हैं ?
बुद्ध के देश में
क्या युद्ध से शान्ति मिलती है ?
रक्तपात से
इतिहास नहीं बदलते
बारूदों से हम
झंडे जीत सकते हैं
सरकारें और सत्ता जीत सकते हैं
संस्थाएं जीत सकते हैं
देश जीत सकते हैं
लेकिन…
इंसानित और दिल नहीं जीत सकते
शायद ! यहीं तालिबान है ?

लेखक: प्रभुनाथ शुक्ल
(वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार)

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कवि और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। आपके लेख देश के विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित होते हैं। हिंदुस्तान, जनसंदेश टाइम्स और स्वतंत्र भारत अख़बार में बतौर ब्यूरो कार्यानुभव।
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