कविता- मैंने देखा है।

shabdrang
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नहीं लिखूंगा
आज कोरी कल्पनाएं
नहीं बनने दूंगा
ऐसी अपनी रचनाएं
आज वही लिखूंगा
जो मैंने देखा है ।

सूर्योदय में
पक्षियों का चहचहाना
रोशनी पड़ते ही
कलियों का चिटककर खिल जाना
पक्षियों के कलरव का अभिवादन
गांव में लोगों का सूर्य वंदन
मैंने देखा है ।

सुबह बासी रोटी के लिए
झगड़ते बच्चे
आग में भुने आलू कच्चे
मां लिपटी विवशता की चादर में
पानी भरते गागर में
मैंने देखा है ।

बिना कुछ खाए
हड्डियों का ढांचा लिए किसान
खेत में दुबले बैलों के साथ
बनाता अपनी पहचान
तपती दोपहरी में
बहता पसीना
फिर भी कैसे चाहता है जीना
मैंने देखा है ।

आंसुओं के सिवा कोई मोती नहीं
रात्रि के अंधकार में कोई ज्योति नहीं
पीकर लोटा भर रस
निकालता है दिन
व्यर्थ नहीं करता
एक पल एक छिन
मैंने देखा है ।

धान रोपते लोगों के सड़े पैर
मांगते बिवाई फटे
खून रिसते हाथों की खैर
रिक्शेवाले का
हांफ हांफ कर खासना
संपूर्ण शरीर के बल से
रिक्शा खींचना
मैंने देखा है ।

कोदो सावां की भात
नमक पानी की दाल
ऐसी गरीबी का जाल
उसमें भी खुशहाल
मैंने देखा है ।

शरीर तपा देने वाले
बुखार में जीता
बस तुलसी का काढ़ा पीता
ना कोई तीज न त्योहार
फिर भी सबसे मधुर व्यवहार
मैंने देखा है ।

ढिबरी की रोशनी में
किताब के पन्नों का पलटना
आंखों में लिए
भविष्य का सपना
परीक्षा के समय नींद का
खुद-ब-खुद खुल जाना
नींद का किताबों में घुल जाना
मैंने देखा है ।

ओलों से बर्बाद
साल भर की मेहनत
फसलों का नुकसान
भूख से आहत
कैसे हो इस भूख
इस पीड़ा का अंत
बता नहीं पाता कोई संत
मैंने देखा है ।

यौवन में ही बुढ़ापे की झलक
बच्चों का भविष्य बनाने की ललक
जिम्मेदारियों का ढोता बोझ
समाधान की करता खोज
मैंने देखा है ।

इतिहास बताता
वो कुएं का पानी
कहता है बीती कहानी
देसी खाद और कुएं से सिंचाई
खरपतवार की ना थी दवाई
मैंने देखा है ।

बच्चे खेलते नंगे धूल में
संघर्ष ही देखते थे फूल में
खेल खेल में
बहुत कुछ सिखा जाते
गुस्सा होने पर एक दूसरे की
सात पीढ़ियां सुना जाते
वो समय वो याद
कैसे करूं बर्बाद
उस ‘एहसास’
उन स्मृतियों को
संजो कर रखा हूं
हृदय में उसको
डुबोकर रखा हूं
जो मैंने देखा है।

अजय एहसास
अम्बेडकर नगर (उ०प्र०)

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