मौसम और राजनीति के जीन में कोई फर्क नहीं है। दोनों में काफी समानता है। तभी तो दोनों गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं। कभी -कभी दोनों अपनी वफादारी को कूड़ेदान में डालकर बेईमान हो जाते हैं। तभी तो हिंदी के किसी फनकार ने मौसम की नब्ज पकड़ते हुए ठीक लिखा था…आज मौसम बड़ा बेईमान है…। वैसे भी पतझड़ के बाद बसंत का मौसम आता है। संयोग से अबकी चुनाव बसंत के मौसम में हो रहें हैं। लोकतंत्र में चुनावी मौसम हमारे राजनेताओं के लिए बसंत सरीखा होता है। यहां पतझड़ की तरह सत्ता की चाहत में नयी उम्मीदों के साथ दल और दिल बदले जाते हैं। एक दल से दूसरे दल में जाने वाले राजनेताओं का स्वागत कुछ इस तरह होता है …बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है…।
लोकतंत्र में राजनीति और राजनेताओं के लिए चुनावी मौसम बेहद मुफीद होता है। पलक झपते ही आस्था, दल, दिल बदल जाते हैं। पतझड़ कि तरह त्यागपत्र या इस्तीफों की बारिश होने लगती है। किसी शायर ने इस पर सटीक गजल लिखी…नेताओं इस्तीफा बरसाओ चुनाव आया है…। जब तक सत्ता में रहते हैं तो सम्बंधित दल और उसकी विचारधारा को बीरगाथा यानी चारणकाल की भांति लिपिबद्ध करते है फिर रागदरबारी में मेघ मल्हार गाते हैं। सोशलमीडिया और मीडिया में अपने सियासी सुरमा की भक्ति में सारी हदों और सरहदों को तोड़ देते हैं। लेकिन चुनावी मौसम में दल और दिल बदलते ही अचानक उनकी विचारधारा भी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगती है।
चुनावी मौसम में अचानक नेताजी का हृदय परिवर्तन हो उठता है और दरिद्रनारायण की सेवा का भाव जग उठता है। समाज के दबे, कुचले, शोषित और वंचित उन्हें याद आने लगते हैं। घड़ियाली आँसू भी गिरने लगते हैं। क्योंकि उन्हें दरिद्रनारायण का दिल जीतना रहता है, और उसी के सहारे सत्ता की स्वप्निल सीढ़ियां चढ़नी होती हैं।कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है। जहाँ आज हिमालय है वहां कभी गहरा सागर था। कभी जहाँ जंगल थे आज वहां मेट्रोसिटी खड़ी हैं। अभी बर्फबारी का मौसम है तो कल बसंत आएगा। कभी सूखा तो कहीं सुनामी। कभी होली होती तो कभी दिवाली। यानी कभी गाड़ी नाव पर और कभी नाव गाड़ी पर। कहने का अभिप्राय यह है कि परिवर्तन प्रकृति का सास्वत सत्य है। फिर राजनेता और राजनीति उस शाश्वत सत्य का अनुशीलन कर रही है तो भला हमें आलोचना करने का क्या अधिकार है।
जब चतुर्दिक बादलाव को सहर्ष स्वीकार किया जाने लगा है तो हमें ऐसी टिप्पणी और आलोचनाओं से बचाना चाहिए जो हमारी पुरातन संस्कार, संस्कृति और परम्परा को नष्ट करना चाहती हैं। हमें प्रकृति और परिवर्तन के सिद्धांत का अनुगमन करने वालों का सम्मान करना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग ही हमारे संस्कृति और परम्पराओं के रक्षक हैं। यहीं हमारे आदर्श और अधिनायक हैं।… चल पड़े जिधर दो डग मग मेंचल पड़े कोटि पग उसी ओर, पड़ गई जिधर भी एक दृष्टिगड़ गये कोटि दृग उसी ओर…। हालांकि यह इनके लिए उपयुक्त पक्तियां नहीं हैं लेकिन प्रसंगवस लिखना पड़ रहा है। इन्हीं लोगों की वजह से लोकतंत्र सुरक्षित है।
अगर हम ऐसा कुछ करते हैं तो यह लोकतान्त्रिक मूल्यों के खिलाफ होगा। हमारी धर्मनिरपेक्ष नीति को बड़ा धक्का लगेगा।बदलाव की यह मुहिम किसी भी स्थिति में स्थापित रहनी चाहिए। क्योंकि यहीं तो लोकतंत्र का असली प्राणत्व है और राजनेता उसका स्तम्भ। गीता में भगवान कृष्ण ने सच कहा है ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।’ यानी आत्मा अजर-अमर है। वह कभी मरती नहीं है। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नया धारण करता है ठीक उसी प्रकार आत्मा एक नश्वरदेह को त्याग कर दूसरी काया में प्रवेश करती है। यह सिद्धांत ठीक उसी प्रकार हमारी राजनीति और राजनेताओं पर लागू होता है।
अगर यह बात आपके समझ में न आयी हो तो हम सरल भाषा में आपको समझा देते हैं। राजनेता को आप ‘आत्मा’ और दल को ‘शरीर’ समझ सकते हैं। क्योंकि गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि ‘आत्मा नश्वर है’ यानी यह कभी मरती नहीं है। सिर्फ शरीर का त्याग करती है। ठीक उसी तरह राजनीति में एक राजनेता जब किसी दल यानी ‘देह’ का त्याग कर चुनावी मौसम में दूसरे दल यानी ‘शरीर’ में प्रवेश करता है तो उसे आत्मा का त्याग कहते हैं। वैसे भी हमारे यहाँ परकाया प्रवेश कि विद्या काफी प्राचीन थीं, लेकिन वह विलुप्त हो चुकी थी। आधुनिक लोकतंत्र में विलुप्त होती इस विद्या को जीवंत रखने के लिए हमारे राजनेताओं ने बड़ा बलिदान दिया है। लोकतंत्र में इस विद्या को पुन:जागृत करने के लिए हमारा समाज राजनीति और राजनेताओं का आजीवन ऋणी रहेगा।
लेखक : प्रभुनाथ शुक्ल
(वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार)