दशहरा विजयादशमी पर विशेष कविता
वो त्रेतायुग का था रावण,
भगिनी की लाज का लिया था प्रण
भगिनी की लाज बचाने को,
खोया सम्मान दिलाने को।
वो युद्धभूमि मे अड़ा रहा,
भाई बन्धु को लड़ा रहा
इन्सान आज भगिनी के साथ,
क्या कहूँ बना ये दरिन्दा है
आज भी रावण जिन्दा है,
आज का रावण जिन्दा है।
इन्सान था रावण दैत्य नहीं,
कहने का है औचित्य नहीं
रावण ने मदिरा नहीं पिया,
वह भक्ति योग के साथ जिया
ना भक्ति करें ना योग करें,
बस सुरा सुन्दरी भोग करें
इन्सान आज मदिरा पीकर,
कहता ईश्वर का बन्दा है
आज भी रावण जिन्दा है,
आज का रावण जिन्दा है।
वो रावण नहीं था अभिमानी,
वेदों ग्रन्थों का था ज्ञानी
वो आत्मज्ञान को जानता था,
फिर भी ईश्वर को मानता था
कुछ अक्षर हमने सीख लिये,
करते ईश्वर की निन्दा है
आज भी रावण जिन्दा है,
आज का रावण जिन्दा है।
चाहे जितने पुतले फूँके,
चाहे उसके ऊपर थूके
वो खुद का मान बचाया था,
अपना इतिहास रचाया था,
इन्सान आज धन की खातिर,
खुद अपनी लाज लुटाता है
एहसास’ आज शर्मिंदा है,
तेरे भीतर रावण जिन्दा है
आज भी रावण जिन्दा है,
आज का रावण जिन्दा है।।
-अजय एहसास
सुलेमपुर परसावां
अम्बेडकर नगर (उ०प्र०)